दक्षिण एशिया में रूस की वापसी
भूराजनीति की दुनिया में देर तक घूमने फिरने के बाद ऐसा मन करता है कि तेज़ी से कूची घुमाकर और ज़्यादा रंग पोतकर जल्दी से बनाए जा रहे चित्र को पूरा कर दिया जाए। सब जानते हैं कि भूराजनीति के कुछ बड़े खिलाड़ी हैं, और कुछ उनसे कम प्रभावशाली दूसरे खिलाड़ी हैं, लेकिन हर इलाके में राजनीति से जुड़ी कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं, जो राजनीति को गहराई से प्रभावित करती हैं और कुछ चीज़ें ऐसी भी होती हैं, जिनकी तरफ़ ज़रा भी ध्यान देना ज़रूरी नहीं होता।
हमेशा ऐसा नहीं होता है कि इस तरह की बातों का कोई फ़ायदा हो कि हर देश बराबर है और सँयुक्त राष्ट्रसंघ के हर छोटे से छोटे सदस्य देश के वोट का वज़न भी उतना ही है, जितना किसी बड़े और विशाल देश का है, क्योंकि प्रशान्त महासागरीय इलाके के दस हज़ार की आबादी वाले किसी छोटे से देश की आवाज़ उतनी ही भारी और प्रभावशाली नहीं होती, जितनी किसी बड़ी विश्व महाशक्ति की आवाज़ होती है। हालाँकि सब इस बात से सहमत हैं, लेकिन...
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खेद है कि सोवियत संघ के पतन के बाद पिछली सदी के आख़िरी दशक में न सिर्फ़ उन देशों के साथ रूस के रिश्तों में यह बात सच निकली, जिनके साथ सोवियत काल में रूस के गहरे रिश्ते नहीं थे, बल्कि उन देशों के सिलसिले में भी यह बात पूरी तरह से खरी उतरी, जो रूस के गहरे दोस्त माने जाते थे। जब बरीस येल्तसिन रूस के राष्ट्रपति थे और अन्द्रेय कोज़िरिफ़ रूस के विदेशमन्त्री थे, तो इन देशों को पूरी तरह से भुला दिया गया था। पश्चिमी देशों की ओर रूस के झुकाव के कारण रूस की विदेशनीति में उस समय जो टेढ़ापन आ गया था, वह आज भी बना हुआ है और उसे पूरी तरह से ठीक करना सम्भव नहीं हुआ है।दक्षिणी एशिया के और रूस के आपसी रिश्तों के बारे में भी हमारी यह बात एकदम लागू होती है।
यहाँ तक कि भारत के साथ भी पिछली सदी के अन्तिम दशक में रूस के रिश्ते काफ़ी बिगड़ गए थे। और इसका कारण सिर्फ़ यही नहीं था कि रूस का झुकाव पश्चिमी देशों की तरफ़ बहुत ज़्यादा हो गया था, बल्कि इसका एक मुख्य कारण यह भी था कि दोनों ही देशों में तकलीफ़देह आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया चल रही थी। हालाँकि बीते सालों में हालत सुधरने लगी है, लेकिन फिर भी, सच-सच कहा जाए, तो अभी तक हमारे दो देशों के रिश्ते फिर से उतने गहरे नहीं हुए हैं, जैसे पिछली सदी के सातवें और आठवें दशक में थे।
दूसरी तरफ़, रूस और पाकिस्तान के रिश्तों में पिछले दिनों में सकारात्मक बदलाव आया है, जबकि शीत-युद्ध के सालों में दो देशों के बीच रिश्ते खुले तौर पर टकराव भरे थे। यहाँ तक कि पिछली सदी के नौवें दशक में तो पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ छ्द्म-युद्ध (प्रॉक्सी युद्ध) भी चला रहा था। आज हालत यह है कि पाकिस्तान को रूस का दोस्त, साथी या रणनीतिक सहयोगी तो नहीं कहा जा सकता है, परन्तु दो देशों के बीच सहयोग और रिश्तों का विकास इस तरह से हो रहा है कि उनसे किसी तीसरे देश को कोई नुक़सान न हो।
लेकिन दक्षिण एशिया का मतलब सिर्फ़ भारत और पाकिस्तान ही तो नहीं है। इन दो देशों के अलावा भी इस इलाके में पाँच और स्वतन्त्र देश हैं। ये देश हैं —बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, मालदीव और श्रीलंका। इनमें से हर देश कि अपनी अनूठी सांस्कृतिक परम्पराएँ हैं और हर देश विश्व की आधुनिक अर्थव्यवस्था और भूराजनैतिक दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखता है। सोवियत संघ का पतन होने से पहले इनमें से ज़्यादातर देशों के साथ रूस के रिश्ते काफ़ी अच्छे और फलदायक थे।
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पिछले समय में इस दिशा में भी सकारात्मक परिवर्तन हो रहे हैं। रूस बांग्लादेश में एटमी बिजलीघर का निर्माण करने जा रहा है। रूसी लोग पर्यटक के रूप में मालदीव और श्रीलंका की यात्राएँ करना बेहद पसन्द करते हैं और लम्बे समय से इन देशों में जा रहे हैं। पिछली सदी के अन्तिम दशक में रूस के सिर्फ़ अभिजात वर्ग के लोग ही मलदीव की पर्यटन-यात्राओं पर जाया करते थे, लेकिन आज रूस के मध्यवर्ग के बीच भी मालदीव बेहद लोकप्रिय हो गया है।
लेकिन फिर भी यदि दो देशों के बीच होने वाले दुपक्षीय व्यापार पर नज़र डाली जाए तो दृश्य बहुत धुँधला नज़र आता है। जैसे श्रीलंका और रूस के बीच वार्षिक दुपक्षीय व्यापार सिर्फ़ 44 करोड़ डॉलर का होता है। मुख्य तौर पर श्रीलंका रूस को चाय की सप्लाई करता है और रूस श्रीलंका को उन मशीनों के लिए कल-पुर्जों की आपूर्ति करता है, जो श्रीलंका ने सोवियत सत्ताकाल में ख़रीदी थीं। दोनों देशों के व्यापार सन्तुलन श्रीलंका के पक्ष में झुका हुआ है क्योंकि रूस का निर्यात श्रीलंका के मुक़ाबले बहुत कम है।
इस बीच एशिया में सक्रिय बड़ी भूराजनीतिक शक्तियाँ बहुत पहले ही यह समझ चुकी हैं कि इस इलाके के ’तथाकथित छोटे देश’ कितने अधिक महत्वपूर्ण हैं। ’तथाकथित छोटे देश’ हमने इसलिए कहा है क्योंकि बांग्लादेश छोटा ज़रूर हैं, लेकिन उसकी जनसंख्या रूस की जनसंख्या से बहुत ज़्यादा है। मई, 2014 में जब नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमन्त्री बने तो राजनीतिक विश्लेषक यह अन्दाज़ लगाने की कोशिश कर रहे थे कि वे सबसे पहले किस देश की यात्रा करेंगे। सब सोच रहे थे कि वे सबसे पहले जापान जाएँगे। लेकिन उन्होंने प्रधानमन्त्री के रूप में सबसे पहले भूटान जाना तय किया, जो बहुत प्रतीकात्मक था।
अमरीकी राजनीतिक विश्लेषक भी दक्षिणी एशिया के महत्व को अच्छी तरह समझते हैं। रॉबर्ट डी० कापलान ने पिछले दिनों में अनेक ऐसे लेख लिखे हैं, जिसमें उन्होंने कहा है कि इक्कीसवीं सदी में हिन्द महासागर ही दुनिया में भूराजनैतिक टकराव का मुख्य अखाड़ा बनेगा।
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चीन के बारे में, बस, यही कहा जा सकता है कि चीन हिन्द महासागर और दक्षिणी एशिया को ’इक्कीसवीं सदी के नए समुद्री रेशमी मार्ग’ की ’बेल्ट और रास्ते’ के रूप में देखता है। वास्तव में चीन जाने वाला और चीन से आने वाला ज़्यादातर माल हिन्द महासागर के रास्ते ही अपनी मंज़िल तक पहुँचता है और यह रास्ता समुद्री डाकुओं की सक्रियता की वजह से तथा सक्रिय अमरीकी नौसैनिक गतिविधियों की वजह से बहुत ख़तरनाक है। अमरीका का पाँचवाँ और सातवाँ नौसैनिक बेड़े यहाँ पर सक्रिय हैं। इसलिए चीन के लिए यह बात महत्वपूर्ण है कि यहाँ पर उसकी सामरिक उपस्थिति मज़बूत हो।
इसीलिए चीन इस इलाके के देशों के साथ बड़ी सक्रियता से अपने रिश्तों का विकास कर रहा है। वह पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश और उसके पड़ोसी म्याँमार में बन्दरगाह बना रहा है, इस इलाके में बुनियादी ढाँचा तैयार करने के लिए बड़ी दरियादिली के साथ पूँजी निवेश कर रहा है और इस इलाके के समुद्री क्षेत्र में उसके युद्धपोत लगातार उपस्थित रहते हैं। समय-समय पर मीडिया में इस तरह के लेख दिखाई पड़ते हैं कि चीन सिर्फ़ पाकिस्तान में ग्वादर बन्दरगाह और श्रीलंका में हंबनटोटा बन्दरगाह ही नहीं बना रहा है, बल्कि वह इन बन्दरगाहों का सैनिक उद्देश्यों से इस्तेमाल करने की योजना भी बना रहा है। मालदीव में चीनी पनडुब्बी अड्डा बनने की ख़बरें भी अक्सर देखने को मिलती हैं।
1971 में ही सँयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने यह घोषणापत्र स्वीकार किया था कि हिन्द महासागर एक शान्तिपूर्ण इलाका होगा। लेकिन, खेद है कि इस घोषणापत्र पर अमल नहीं किया जा सका। पिछले वर्षों की घटनाएँ दिखाती हैं कि इस इलाके में तनाव बढ़ता जा रहा है। ऐसी स्थिति में यह बात बहुत पहले ही समझ में आ चुकी है कि दुनिया की एक महत्वपूर्ण महाशक्ति के रूप में हिन्द महासागर में रूस की वापसी ज़रूरी हो गई है।
बरीस वलख़ोन्स्की रूसी सामरिक शोध संस्थान में एशिया और मध्य एशिया अध्ययन केन्द्र के उपसंचालक हैं।
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