यूरोपीय रूस के सबसे ठण्डे इलाके के लोगों का जीवन
रूस के अर्ख़ान्गिल्स्क प्रदेश के दुर्गम इलाकों में बसे गाँवों के जीवन में पिछले कई सदियों में शायद ही कोई बदलाव आया है। लोग आज भी पहले की तरह अपने एकान्तप्रिय समुदायों में रहते हैं और बाहरी दुनिया के लोगों से कम से कम सम्पर्क रखते हैं। रूस के उत्तरी क्षेत्रों का अध्ययन करने वाले रूसी इतिहासकार और मस्क्वा (मास्को) विश्वविद्यालय के इतिहास संकाय के प्रोफ़ेसर अन्द्रेय तुतोरस्की पिछले 10 सालों से लगातार अर्ख़न्गेल्स्क प्रदेश के गाँवों में जाकर यह परखने की कोशिश करते हैं कि इन ठण्डे इलाके के लोगों का जीवन कितना जटिल और मुश्किल है। इन्हीं गाँवों में से एक गाँव है वझगोरा।
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भूख लगे तो जंगल में जा
रूस के उत्तरी इलाकों के दुर्गम प्रदेशों में बसे हुए अन्य गाँवों की तरह वझगोरा गाँव के निवासी भी घरेलू खेती-बाड़ी करके या शिकार करके अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। 1991 में सोवियत संघ का पतन होने के बाद सामूहिक खेती फ़ार्म और वन-उपज केन्द्र बन्द हो गए। इसके बाद यहाँ कोई काम-धन्धा बाक़ी न रहा। इस इलाके में बेरोज़गारी ने अपने पैर पसार लिए। लोगों को जीने के लिए फिर से अपने परम्परागत व्यवसायों की तरफ़ वापिस मुड़ना पड़ा। पेट की आग बुझाने के लिए अपने बाप-दादाओं के पुराने तरीके ही फिर से अपनाने पड़े। गाँवों में लोग अब गाय, मुर्गियाँ और भेड़ें पालते हैं। सब्ज़ियों के लिए घरेलू खेती करते हैं और जंगल में जाकर शिकार करते हैं तथा बेरियाँ और खुमियाँ (कुकुरमुत्ते) इकट्ठा करते हैं।
गाँव के बीचोंबीच बहने वाली मेज़ेन नदी में मछलियाँ पकड़कर और उन्हें सुखाकर लोग सारे साल के लिए भोजन का इन्तज़ाम कर लेते हैं। आम तौर पर यहाँ कतिया या वदौन नामक छोटी मछली ही मिलती है, जो नेथली मछली से मिलती-जुलती होती है। बारीक जाल डालकर ही इस मछली को पकड़ा जा सकता है। कतिया नामक यह मछली न सिर्फ़ स्थानीय निवासियों का नियमित भोजन है, बल्कि भूसी में मिलाकर उसे घरेलू चौपायों को भी खाने के लिए दिया जाता है। इस तरह यह मछली उनके लिए भी विटामिन का काम करती है।
लेकिन वझगोरा गाँव के निवासियों के बीच रोछ मछली बहुत लोकप्रिय है। आम तौर पर कोई भी मछुआरा दिन भर में 10 से लेकर 20 तक रोछ मछलियाँ पकड़ लेता है। कभी-कभी भारी संख्या में रोछ नदी में बहकर चली आती है। अन्द्रेय तुतोरस्की ने बताया — उन दिनों में तो एक-एक आदमी सिर्फ़ 20 मिनट में डेढ़ सौ मछलियाँ तक पकड़ लेता है। नदी में हैरिस, पाईक और पसेरा जैसी बड़ी और विशाल मछलियाँ भी मिलती हैं। इन मछलियों को 40-40 लीटर के बड़े-बड़े ढोलों में नमक के पानी में भिगोकर रख देते हैं और फिर सारे साल खाते हैं। वझगोरा गाँव के हर परिवार के पास घर के नीचे बने तहख़ाने में इस तरह के मछलियों से भरे 5-10 ढोल ज़रूर होते हैं।
बेरिन्त्स सागर से मेज़ेन नदी में अक्सर सामेन और बड़ी सामेन मछलियाँ भी बहकर चली आती हैं। इन मछलियों का गोश्त बड़ा स्वादिष्ट होता है, इसलिए सामेन मछली को ही मछलियों की रानी माना जाता है। जिस सीजन में सामेन मछलियाँ समुद्र से बहकर नदी में आती हैं, उन दिनों गाँव का हर आदमी अपने रोज़मर्रा के काम-धन्धे छोड़कर नदी में मछली पकड़ता हुआ दिखाई देता है।
वझगोरा गाँव में नौकरियाँ लगभग न के बराबर हैं। लेकिन गाँव के स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापकों के वेतन बहुत ज़्यादा हैं। कोई-कोई अध्यापक तो हर महीने क़रीब 90 हज़ार रुपए वेतन के रूप में पाता है। जबकि आम तौर पर गाँव में 13 हज़ार से 25 हज़ार रूपए तक ही लोगों को वेतन के रूप में मिलते हैं। अक्सर लोगों का वेतन ज्यों का त्यों सुरक्षित बचा रह जाता है। उस रक़म का इस्तेमाल लोग तभी करते हैं, जब शहर में जाते हैं। वझगोरा से अर्ख़न्गेल्स्क शहर तक जाने के लिए टैक्सी का किराया साढ़े 3 से लेकर 4 हज़ार रूपए तक लगता है। विमान से शहर जाना हो तो एक तरफ़ का किराया 9 हज़ार रुपए है।
शून्य से 40 डिग्री नीचे के तापमान में मछलीमारी
वझगोरा गाँव रूस के यूरोपीय हिस्से में उत्तरी ध्रुव के इलाके में पड़ता है। यहाँ आम तौर पर तापमान शून्य से 45 डिग्री नीचे रहता है। घोर सर्दियों के दिनों में यह तापमान और नीचे चला जाता है और घटकर शून्य से 62 डिग्री नीचे तक पहुँच जाता है। लेकिन जाड़ों में भी गाँव के पुरुष मछली पकड़ने जाते हैं। फ़रवरी में तापमान थोड़ा बढ़ जाता है और वह शून्य से 20 डिग्री नीचे हो जाता है, जिसे आजकल गाँव के लोग ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा बताते हैं।
पहले अक्सर भयानक जाड़े के दिनों को स्थानीय निवासी बड़ा फ़ायदेमन्द मानते थे। 1986 तक इस पूरे इलाके में एक ही टीवी टॉवर था। वह टीवी टॉवर भी गाँव से 150 किलोमीटर दूर था। गाँव के हर मकान की छत पर लगे टीवी एण्टेना तभी काम करते थे, जब तापमान शून्य से 50 डिग्री नीचे चला जाता था और हवा में अतिचालकता पैदा हो जाती थी। ऐसे दिनों में जब एण्टेना काम करता था, लोग अपना सब काम छोड़कर टेलीविजन के आगे जम जाया करते थे।
अब गाँव के क्लब में वाई-फ़ाई एण्टेना लगा हुआ है। गाँव में मोबाइल फ़ोन की संचार सेवा उपलब्ध नहीं है। इसलिए सभी युवक-युवतियाँ क्लब में या क्लब की इमारत के आसपास खड़े दिखाई देते हैं ताकि सोशल वेबसाइटों का इस्तेमाल कर सकें और अपने हमजोलियों से बातचीत और सम्पर्क कर सकें।