अमरीका के विदेशी सैन्य-खर्चों में कमी होने से क्या रूस को कोई फ़ायदा होगा?
अमरीकी विदेश नीति के क्षेत्र में खर्च घटाने की नीति के तहत मार्च के शुरू में ही व्हाइट हाउस के बजट सम्बन्धी निदेशक मिक मलवेनी ने यह प्रस्ताव रखा था कि अमरीका के जिन सहयोगी देशों को हथियारों के रूप में सैन्य-सहायता दी जाती है, उन्हें उधार में हथियार ख़रीदने की सुविधा दी जाए। बहुत से अमरीकी राजनीतिज्ञों ने इस प्रस्ताव को आलोचना की निगाहों से देखा और अमरीकी मीडिया में इस मुद्दे को लेकर गरमा-गरम बहस शुरू हो गई। मलवेनी के इस प्रस्ताव के आलोचकों का कहना है कि यदि अमरीका के सहयोगी देशों को मुफ़्त में हथियार देना बन्द कर दिया जाएगा तो वे सस्ते चीनी और रूसी हथियार ख़रीदना शुरू कर देंगे।
’विदेशी सैन्य खर्च’ – दरअसल अमरीका के सहयोगी देशों को सैन्य-सहायता देने का एक कार्यक्रम है, जो 1961 में शुरू किया गया था। ’विदेशी सैन्य खर्च’ कार्यक्रम के अन्तर्गत सहयोगी देशों को अमरीका की तरफ़ से बड़े-बड़े अनुदान दिए जाते हैं, जिनका इस्तेमाल वे अमरीकी हथियार और अमरीकी सैन्य-तकनीक को ख़रीदने के लिए कर सकते हैं। इसके अलावा इस अनुदान का इस्तेमाल ये देश अमरीकी मानकों के अनुसार अपने सैन्य-विशेषज्ञों को प्रशिक्षण देने के लिए भी कर सकते हैं।
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2015 में क़रीब 60 देशों को ’विदेशी सैन्य-खर्च’ कार्यक्रम के अन्तर्गत अमरीकी सहायता दी गई थी। लेकिन इनमें से आधे से ज़्यादा देशों को दस लाख डॉलर से भी कम का अनुदान मिला था। आजकल जिन देशों को मुख्य तौर पर इस कार्यक्रम के अन्तर्गत सहायता दी जाती है, उनमें इज़रायल का नाम सबसे पहले आता है। आम तौर पर हर बार इज़रायल ही इस कार्यक्रम की आधी से ज़्यादा रक़म यानी हर साल क़रीब 3 अरब डॉलर हड़प जाता है। इज़रायल के अलावा 2015 में उन देशों को अमरीकी सहायता दी गई थी, जो आतंकवादी गिरोह ’इस्लामी राज्य’ (इरा) के विरुद्ध सक्रिय हैं। 2017 के अमरीका के ’विदेशी सैन्य खर्च’ कार्यक्रम के लिए अमरीकी बजट से 5 अरब 10 करोड़ डॉलर तय किए गए हैं। कार्यक्रम के अनुसार इनमें से 1 अरब 30 करोड़ डॉलर की सहायता मिस्र को दी जाएगी, 25 करोड़ डॉलर की सहायता जोर्डन को और 15 करोड़ डॉलर इराक को दिए जाएँगे।
सुरक्षा के लिए भुगतान
यह मत समझिए कि अमरीका सिर्फ़ ’विदेशी सैन्य खर्च’ कार्यक्रम के अन्तर्गत ही अपने सम्भावित सहयोगियों को फ़ौजी-सहायता देता है। इसके अलावा निःशुल्क सैन्य-तकनीक (आम तौर पर सैकिण्ड हैण्ड) उपहार में देने का एक कार्यक्रम भी चल रहा है। सैन्य ज़रूरतों के लिए ऋण भी दिए जाते हैं तथा सैन्य-सहायता से जुड़े दुपक्षीय समझौते भी किए जाते हैं। इस तरह ’विदेशी सैन्य खर्च’ कार्यक्रम के लिए इस्तेमाल की जानेवाली 5 अरब डॉलर की रक़म कोई बहुत बड़ी रक़म नहीं है। अमरीका में इस रक़म को अमरीकी रक्षा उद्योगों को दिए गए अनुदान के तौर पर लिया जाता है। सोवियत सत्ता काल में सोवियत संघ भी उन देशों को निःशुल्क सैन्य सहायता दिया करता था, जो समाजवाद की राह पर उसके हमसफ़र बन गए थे और इस तरह सोवियत संघ अपने रक्षा उद्योग के लगातार चलने की गारण्टी दिया करता था।
मिक मलवेनी के आलोचकों का भी यही कहना है कि अमरीकी रक्षा उद्योग को इसके बाद ज़्यादातर नए आर्डर मिलने बन्द हो जाएँगे और यह नीति पश्चिमी एशिया में अमरीका के सहयोगियों को कमज़ोर करेगी। लेकिन ऐसा लगता है कि डोनाल्ड ट्रम्प का यह नया नज़रिया अमरीका के सहयोगियों को इसके लिए बाध्य कर देगा कि वे अपनी सुरक्षा को बनाए रखने के लिए अमरीका को भुगतान करें। अमरीकी अनुदान से ख़रीदे गए अमरीकी हथियार और अमरीकी सैन्य तकनीक का रख-रखाव और देखभाल करना बहुत महँगा पड़ता है। लेकिन सेना को नए हथियारों से लैस करना और भी कई गुना ज़्यादा महंगा होगा। बस, यही एक बात रूसी हथियारों की ख़रीद के रास्ते में बाधा बनकर खड़ी हुई है।
रूस के लिए मौक़ा
रूस की आर्थिक हालत आज ऐसी नहीं है कि वह अमरीका की तरह अपने ख़रीदारों को ऋण व अनुदान की सुविधाएँ उपलब्ध करा सके। अगर अमरीका इन देशों से अपनी सारी सैन्य सहायता के लिए पूरा-पूरा भुगतान भी माँगेगा, तो भी वह अपने सहयोगी देशों को भारी रियायतें देगा। इन रियायतों को पाने के लिए, बस, एक ही शर्त होगी कि हथियार और सैन्य उपकरण अमरीका से ही ख़रीदे जाएँ। लेकिन पश्चिमी एशिया में जारी संकटों और युद्धों के कारण हथियारों की माँग इतनी ज़्यादा बढ़ गई है कि अमरीकी रक्षा उद्योग उस माँग को पूरा नहीं कर पा रहा है। सबसे पहले इसी वजह से रूसी हथियारों की माँग बढ़ने की सम्भावना पैदा हो गई है।
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पश्चिमी एशिया में चल रहे युद्धों और संकटों की स्थिति में रूसी हथियारों की माँग बढ़ती जा रही है, इसका एक उदाहरण 2014 में इराक द्वारा रूस से एसयू-25 नामक लड़ाकू विमानों की ख़रीद करना है। इराक ने रूस से इन विमानों की ख़रीद उक्रईनी संकट शुरू होने के बाद और यूरोप द्वारा रूस पर प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा करने के बाद की थी। हालाँकि कुछ देशों में अमरीका ऐसे प्रशासनिक तरीकों का इस्तेमाल कर सकता है, जिनकी वजह से वे देश अमरीका की सहमति के बिना रूसी और चीनी हथियार ख़रीदने की हिम्मत नहीं करेंगे। आतंकवादी गिरोह ’इस्लामी राज्य’ (इरा) के ख़िलाफ़ चल रही लड़ाई की हालत में हथियारों की कमी अमरीका को इसके लिए बाध्य कर सकती है कि वह अपने सहयोगी देशों को रूसी हथियार ख़रीदने की इजाज़त दे दे।
उदाहरण के लिए मिस्र और जोर्डन रूस से हथियारों की ख़रीद बढ़ाते जा रहे हैं। परन्तु अमरीकी ’विदेशी सैन्य खर्च’ कार्यक्रम के अन्तर्गत छोटी रक़में पाने वाले इण्डोनेशिया, मंगोलिया और कुछ अफ़्रीकी देश कठोर शर्तों पर अमरीका से ऋण लेने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाएँगे। इन देशों में रूसी हथियारों की बढ़ती हुई माँग को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कुछ इलाकों में रूसी हथियारों का निर्यात काफ़ी बढ़ जाएगा।
’विदेशी सैन्य खर्च’ कार्यक्रम में बदलाव करने का, बस, यही असर होगा कि डोनाल्ड ट्रम्प रूस और चीन के लिए हथियारों के ’समस्याग्रस्त’ बाज़ार का एक छोटा-सा हिस्सा छोड़ देंगे और इसके बदले वे इस तरह के आरोपों से बच जाएँगे कि वे उन सरकारों को सहायता दे रहे हैं, जो अमरीका के प्रति वफ़ादार नहीं हैं। इसके अलावा वे अमरीकी रक्षा उद्योग में अपनी स्थिति को भी मज़बूत बनाए रखेंगे। उसी समय ’इरा’ के विरुद्ध और अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद के विरुद्ध चल रही लड़ाई की वजह से दुनिया में हथियारों की माँग बढ़ती चली जाएगी। इस तरह रूस सहित सभी देशों के लिए हथियारों का भरपूर बाज़ार बना रहेगा। वैसे भी रूस दक्षिणी भूमध्यसागरीय इलाके के देशों और पश्चिमी एशिया के ज़्यादातर देशों के लिए सैन्य तकनीकी सहयोग की दृष्टि से उनका पुराना सहयोगी है।
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